यह कथा स्कंद पुराण, पद्म पुराण, या शिव पुराण आदि में श्रावण मास के महात्म्य रूप में कही गई है जिसमें भगवान् शिव की लक्षपूजा का वर्णन किया गया है ।
सनत्कुमार बोले – हे भगवन् ! आपने श्रावणमास के व्रतों का संक्षिप्त वर्णन किया। हे स्वामिन् ! इससे हमारी तृप्ति नहीं हो रही है, अतः आप कृपा करके विस्तार से वर्णन करें, जिसे सुनकर हे सुरेश्वर ! मैं कृतकृत्य हो जाऊँगा । ईश्वर बोले – हे योगीश ! जो बुद्धिमान् नक्तव्रत के द्वारा श्रावणमास को व्यतीत करता है, वह बारहों महीने में नक्तव्रत करने के फल का भागी होता है । नक्तव्रत में दिन की समाप्ति के पूर्व (सन्यासियों के लिये) एवं रात्रि में गृहस्थोंके लिये भोजन का विधान है। उसमें सूर्यास्त के बाद की तीन घड़ियों को छोड़कर नक्त भोजन का समय होता है। सूर्य के अस्त होने के पश्चात् तीन घड़ी सन्ध्या-काल होता है। सन्ध्यावेला में आहार, मैथुन, निद्रा और चौथा स्वाध्याय- इन चार कर्मों का त्याग कर देना चाहिये।
गृहस्थ और यति के भेद से उनकी व्यवस्था के विषय में मुझसे सुनिये । सूर्य के मन्द पड़ जानेपर जब अपनी छाया अपने शरीरसे दुगुनी हो जाय, उस समय के भोजन को यति के लिये नक्तभोजन कहा गया है; रात्रि-भोजन [उनके लिये] नक्तभोजन नहीं होता है । तारों के दृष्टिगत होने पर विद्वानों ने गृहस्थ के लिये नक्त कहा है। यति के लिये दिन के आठवें भाग के शेष रहने पर भोजन का विधान है; उसके लिये रात्रिमें भोजन का निषेध किया गया है । गृहस्थ को चाहिये कि वह विधिपूर्वक रात्रि में नक्तभोजन करे और यति, विधवा तथा विधुर व्यक्ति सूर्य के रहते नक्तव्रत करें । विधुर व्यक्ति यदि पुत्रवान् हो तब उसे भी रात्रि में ही नक्तव्रत करना चाहिये। अनाश्रमी हो अथवा आश्रमी हो अथवा पत्नीरहित हो अथवा पुत्रवान् हो- उन्हें रात्रि में नक्तव्रत करना चाहिये ।
इस प्रकार बुद्धिमान् मनुष्य को अपने अधिकार के अनुसार नक्तव्रत करना चाहिये। इस मास में नक्तव्रत करनेवाला व्यक्ति परम गति प्राप्त करता है । ‘मैं प्रातः काल स्नान करूँगा, ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करूँगा, नक्तभोजन करूँगा, पृथ्वीपर सोऊँगा और प्राणियों पर दया करूँगा। हे देव! इस व्रतके प्रारम्भ करनेपर यदि मैं मर जाऊँ तो हे जगत्पते! आपकी कृपासे मेरा व्रत पूर्ण हो’- ऐसा संकल्प करके बुद्धिमान् व्यक्तिको श्रावणमास में प्रतिदिन नक्तव्रत करना चाहिये। इस प्रकार नक्तव्रत करनेवाला मुझे अत्यन्त प्रिय होता है ।
ब्राह्मण के द्वारा अथवा स्वयं ही अतिरुद्र, महारुद्र अथवा रुद्रमन्त्रसे महीनेभर प्रतिदिन अभिषेक करना चाहिये। हे वत्स ! मैं उस व्यक्तिपर प्रसन्न हो जाता हूँ; क्योंकि मैं जलधारासे अत्यन्त प्रीति रखनेवाला हूँ अथवा रुद्रमन्त्रके द्वारा मेरे लिये अत्यन्त प्रीतिकर होम प्रतिदिन करना चाहिये । अपने लिये जो भी भोज्य पदार्थ अथवा सुखोपभोगकी वस्तु अतिप्रिय हो; संकल्प करके उन्हें श्रेष्ठ ब्राह्मणको प्रदान करके स्वयं महीनेभर उन पदार्थोंका त्याग करना चाहिये । हे मुने ! अब इसके बाद उत्तम लक्षपूजाविधिको सुनिये। लक्ष्मी चाहनेवाले अथवा शान्ति की इच्छावाले मनुष्य को लक्ष विल्व पत्रों या लक्ष दूर्वादलों से शिव की पूजा करनी चाहिये। आयुकी कामना करनेवालेको चम्पा के लक्ष पुष्पों तथा विद्या चाहनेवाले व्यक्तिको मल्लिका या चमेलीके लक्ष पुष्पों से श्रीहरि की पूजा करनी चाहिये । शिव तथा विष्णु की प्रसन्नता तुलसी के दलों से सिद्ध होती है। पुत्रकी कामना करनेवालेको कटेरीके दलों से शिव तथा विष्णुका पूजन करना चाहिये ।
बुरे स्वप्न की शान्ति के लिये धान्य से पूजन करना प्रशस्त होता है। देवके समक्ष निर्मित किये गये रंगवल्ली आदिसे विभिन्न रंगों से रचित पद्म, स्वस्तिक और चक्र आदिसे प्रभुकी पूजा करनी चाहिये। इस प्रकार सभी मनोरथों की सिद्धि के लिये सभी प्रकार के पुष्पों से यदि मनुष्य लक्षपूजा करे, तो शिवजी प्रसन्न होंगे । तत्पश्चात् उद्यापन करना चाहिये। मण्डप-निर्माण करना चाहिये और मण्डपके त्रिभाग परिमाणमें वेदिका बनानी चाहिये। तदनन्तर पुण्याहवाचन करके आचार्यका वरण करना चाहिये और उस मण्डप में प्रविष्ट होकर गीत तथा वाद्यके शब्दों और तीव्र वेदध्वनिसे रात्रि में जागरण करना चाहिये । वेदिका के ऊपर उत्तम लिंगतोभद्र बनाना चाहिये और उसके बीचमें चावलोंसे सुन्दर कैलासका निर्माण करना चाहिये। उसके ऊपर ताँबे का अत्यन्त चमकीला तथा पंचपल्लवयुक्त कलश स्थापित करना चाहिये और उसे रेशमी वस्त्रसे वेष्टित कर देना चाहिये।
उसके ऊपर पार्वतीपति शिव की सुवर्णमय प्रतिमा स्थापित करनी चाहिये। तत्पश्चात् पंचामृतपूर्वक धूप, दीप तथा नैवेद्यसे उस प्रतिमाकी पूजा करनी चाहिये और गीत, वाद्य, नृत्य एवं वेद, शास्त्र तथा पुराणोंके पाठके द्वारा रात्रिमें जागरण करना चाहिये । इसके बाद प्रातःकाल भलीभाँति स्नान करके पवित्र हो जाना चाहिये और अपनी शाखामें निर्दिष्ट विधानके अनुसार वेदीका निर्माण करना चाहिये। तत्पश्चात् मूलमन्त्रसे या गायत्रीमन्त्र से या शिवके सहस्रनामों के द्वारा तिल तथा घृतमिश्रित खीरसे होम कराना चाहिये अथवा जिस मन्त्र से पूजा की गयी है, उसी से होम करना चाहिये। तदनन्तर शर्करा और घृतसे मिश्रित चरुसे आहुति डालनी चाहिये । तदनन्तर स्विष्टकृत् होम करके पूर्णाहुति डालनी चाहिये। इसके बाद वस्त्र, अलंकार तथा भूषणोंसे भलीभाँति आचार्यका पूजन करना चाहिये ।
तत्पश्चात् अन्य ब्राह्मणों का पूजन करना चाहिये और उन्हें दक्षिणा देनी चाहिये। जिस-जिस वस्तु से उमापति शिव की लक्षपूजा की हो उसका दान करना चाहिये। स्वर्णमयी मूर्ति बनाकर शिव की पूजा करनी चाहिये। यदि दीपकर्म किया हो तो उस दीपक का दान करना चाहिये। चाँदी का दीपक और स्वर्ण की वर्तिका (बत्ती) बनाकर उसे गोघृत से भरकर सभी कामनाओं और अर्थ की सिद्धि के लिये उसका दान करना चाहिये। इसके बाद प्रभु से क्षमा-प्रार्थना करनी चाहिये और अन्त में एक सौ ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये । हे मुने ! जो व्यक्ति इस प्रकार पूजा करता है, मैं उसपर प्रसन्न होता हूँ।
उसमें भी जो श्रावणमास में पूजा करता है, उसका तो अनन्त फल होता है। यदि अपने लिये अत्यन्त प्रिय कोई वस्तु मुझे अर्पण करने के विचार से इस मास में कोई त्यागता है, तो अब उसका फल सुनिये। इस लोक में तथा परलोक में उसकी प्राप्ति लाखगुना अधिक होती है। सकाम करने से अभिलषित सिद्धि होती है और निष्काम करने से परम गति मिलती है । इस मास में रुद्राभिषेक करनेवाला मनुष्य उसके पाठ की अक्षर-संख्या से एक-एक अक्षर के लिये करोड़- करोड़ वर्षों तक रुद्रलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। पंचामृत का अभिषेक करने से मनुष्य अमरत्व प्राप्त करता है ।
इस मास में जो मनुष्य भूमिपर शयन करता है, उसका भी फल मुझसे सुनिये। हे द्विजश्रेष्ठ ! वह मनुष्य नौ प्रकार के रत्नों से जड़ी हुई, सुन्दर वस्त्र से आच्छादित, बिछे हुए कोमल गद्दे से सुशोभित, दश तकियों से युक्त, रम्य स्त्रियों से विभूषित, रत्ननिर्मित दीपों से मण्डित तथा अत्यन्त मृदु और गरुड़ाकार प्रवालमणिनिर्मित अथवा हाथीदाँत की बनी हुई अथवा चन्दन की बनी हुई उत्तम तथा शुभ शय्या प्राप्त करता है । इस मासमें ब्रह्मचर्य का पालन करने से वीर्य की दृढ़ पुष्टि होती है।
ओज, बल, शरीर की दृढ़ता और जो भी धर्म के विषय में उपकारक होते हैं- वह सब उसे प्राप्त हो जाता है। निष्काम ब्रह्मचर्यव्रती को साक्षात् ब्रह्मप्राप्ति होती है और सकाम को स्वर्ग तथा सुन्दर देवांगनाओं की प्राप्ति होती है ।
इस मास में दिन-रात अथवा केवल दिन में अथवा भोजन के समय मौनव्रत धारण करनेवाला भी महान् वक्ता हो जाता है। व्रतके अन्तमें घण्टा और पुस्तक का दान करना चाहिये। मौनव्रत के माहात्म्य से मनुष्य सभी शास्त्रों में कुशल तथा वेद- वेदांग में पारंगत हो जाता है और वह बुद्धि में बृहस्पति के समान हो जाता है। मौन धारण करनेवालेका किसीसे कलह नहीं होता, अतः मौनव्रत अत्यन्त उत्कृष्ट है ।
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